An example of continued relevance of corruption literature of yesteryears, in India
My rating: 5 of 5 stars

हास्यात्मक शैली में लेखक ने, हमारे देश के राजनीतिक जीवनशैली में सर्वव्याप्त भ्रष्टाचार और पूरे जन समाज के ही नैतिक पतन का जैसा चित्रण किया है वह झकझोर देने वाला है और डरावना भी। सबसे हृदयविदारक बात ये है कि उपरोक्त का वर्णन आपको किनहिं मामलों में आज के भ्रष्टाचार के किस्सों से उन्नीस नहीं लगेगा। केवल एकाध शून्यों का अंतर मिलेगा लेन-देन के हिसाबों में,बस।
इसी कारण से इसकी कथा से 'golden-ageism' के उस सिद्धान्त को भी बल मिलता है, जिसके अनुसार हमें सदैव ही गुज़रा हुआ ज़माना, सुहाना और हर दृष्टिकोण से आज से बेहतर और सभ्य नज़र आता है और सारी कमियाँ और त्रुटियाँ वर्तमान में ही नज़र आती हैं। क्योंकि यदि इसके कथ्य के हिसाब से चलें तो कोई खास अंतर नहीं मिलेगा आज के और आज से 26 साल पहले के समाज में।
इसलिए यदि इसे पढ़कर आप निराशावाद के पुजारी हो जाएँ तो कोई बड़ी बात नहीं। अतएव इसे पढ़ें पर इसके 'after-effects' के लिए भी तयार रहें।
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मुकेश जी : आपने जो अपनी 'आधुनिक कलम' से एक पुस्तक विशेष का जो मूल्यांकन किया उसे सराहनीय कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी | आपके टिप्पणियों के साथ न्याय तभी होगा जब पाठक इस पुस्तक को अपने दिल मे सहेज कर रखें और कुछ परिवर्तन लाने की चेष्टा करें |
ReplyDeleteहिमांशु : ईमानदारी से कहूँ तो इस किताब को एंजॉय करने में भी कभी कभी guilty feel हो रहा था । मुझे नहीं पता कि ऐसा तीखे व्यंग्य वाली कहानी पर हंसू कि रोऊँ ! शायद इसी वजह से लेखक-डाइरेक्टर वगैरह अपनी व्यंग्यात्मक कहानियों को जितना हो सके absurd रखने की कोशिश करते हैं, ताकि हंसने में कोई गलती का अनुभव ना हो। उड़ाहारण के लिए...जाने भी दो यारों और मटरू की बिजली का मंडोला etc.
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