Monday, March 30, 2015

Selected shers/ ghazals from 'The Taste of words' (by Raza Mir) ( शायरी # 0 )

with some excerpts of the contexts, mostly in accordance to chronology



इन दिनों गरचे (even though) दक्कन में है बड़ी क़द्र-ए-सुखन
कौन जाये ज़ौक़ पर दिल्ली की गलियाँ छोड़कर
- ज़ौक़ 
(upon being invited to Deccan courts)
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चल साथ के हसरत दिल-ए-महरूम से निकले
आशिक़ का जनाज़ा है, ज़रा धूम से निकले

- मोहसिन उल मुल्क ( originally by मिर्ज़ा मोहम्मद अली फिदवी ? )
(lamenting over passing of the Nagri resolution in 1900 that created an artificial schism between Hindi and Urdu and institutionalized religious affiliations to the languages)
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मैं ने मजनूं पे लड़कपन में, असद
संग उठाया था, कि सर याद आया ।

- ग़ालिब
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ग़ुंचे तेरी बेबसी पे दिल हिलता है 
तू एक तबस्सुम के लिए खिलता है 
ग़ुंचे ने कहाँ के इस चमन में बाबा 
ये एक तबस्सुम भी किसे मिलता है ?

- रुबाई of जोश मलीहाबादी ( ग़ुंचे-फूल )
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हस्ती अपनी हबाब की सी है
ये नुमाइश सराब की सी है

नाज़ुकी उसके लब की क्या कहिये
पंखुड़ी एक गुलाब की सी है

मैं जो बोला कहा के ये आवाज़
उसी खाना-खराब की सी है

बार बार उसके दर पे जाता हूँ
हालत अब इज़तिराब (restless) की सी है

मीर, उन नीम बाज़ आँखों में
सारी मस्ती शराब की सी है ।

- मीर तक़ी मीर
(about whom Ghalib said, "रेख्ता के तुम ही उस्ताद नहीं हो ग़ालिब, कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था" । )
This ghazal is considered by many to be the 'finest', including Ghalib who really liked the sher "Nazuki us ke lab ki..."
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मीर again :

उलटी हो गयीं सब तदबीरें (arrangements) कुछ न दवा ने काम किया
देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आखिर काम तमाम किया

मीर के दीन-ओ-मज़हब को पूछते क्या हो उनने तो
कश्का (tilak) खींचा दैर(temple) में बैठा कब का तर्क इस्लाम किया ।

देखी है जबसे उस बुत-ए-काफ़िर की शक्ल, मीर
जाता नहीं जी तनिक इस्लाम की तरफ़ ।

( last two shers are one of many sly mocking of religion done by Mir. This iconoclasm was later carried forward by other poets as well. A major feature that makes Rekhta/Urdu shayari critical of orthodoxy and religion, in many places)
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कमर बांधे हुए चलने को यां सब यार बैठे हैं
बहुत आगे गए बाकी जो हैं तय्यार बैठे हैं

न छेड़ ऐ निकहत-ए-बाद-ए-बहारी राह लग अपनी
तुझे अठखेलियां सूझी हैं हम बेज़ार बैठे हैं

तसव्वुर अर्श पे है और सर है पा-ए-साक़ी (साकी के पाँव) पर
ग़रज़ कुछ और धुन में इस घडी मयख़्वार बैठे हैं ।

भला गर्दिश फ़लक की चैन देती है किसे 'इंशा' ?
ग़नीमत है के हम-सूरत यहां दो चार बैठे हैं ।

- इंशा अल्लाह खान
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इंशा फिर से : ( He symbolized the ways in which one could claim, unselfconsciously, that Hindi-Urdu were truly the same language. He moved from heavy persianized to sanskritized verse, with ease )

'इंशा' जी उठो अब कूच करो इस शहर में जी का लगाना क्या
वहशी को सुकून से क्या मतलब जोगी का नगर में ठिकाना क्या

उस हुस्न के सच्चे मोती को हम देख सकें पर छू न सकें
जिसे देख सकें पर छू न सकें, वो दौलत क्या वो खज़ाना क्या ?

जब शहर के लोग न रस्ता दें क्यों बन में न जा बिसराम करें
दीवानों की सी न बात करे तो और करे दीवाना क्या ।
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ना घर है ना दर है, बचा एक 'ज़फर' है
फ़क़त हाल-ए-दिल्ली सुनाने को ।
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कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में ।

उम्र-ए-दराज़(long life) मांग के लाये थे चार दिन
दो आरज़ू में काट गए दो इंतज़ार में ।

कितना है बदनसीब ज़फर दफ़्न के लिए
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार(beloved's street) में ।
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बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी
जैसी अब है तेरी महफ़िल, कभी ऐसी तो न थी ।

ले गया छीन के कौन आज तेरा सब्र-ओ-करार
बेक़रारी तुझे ऐ दिल कभी ऐसी तो न थी ।

उनकी आँखों ने खुद जाने किया क्या जादू
के तबियत मेरी माइल(attracted) कभी ऐसी तो न थी ।

सभी : बहादुर शाह ज़फर
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2 comments:

  1. बहुत सुन्दर संग्रह है . इसे और बढ़ाएं. मेरी शुभ कामना

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    1. बहुत शुक्रिया आपका। :)

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